भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68% आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है।
लेकिन आज कुछ समाज में आरक्षण को लेकर विवाद बढ़ने लगे। सवर्ण समाज आरक्षण की नीतियों का खंडन लगातार करता आ रहा है। कई बार सवर्ण समाज ने आरक्षण के विरोध में आंदोलन किये है, कई जनसभाएं हुई व सरकार भी समय की जरूरत भांपते हुए ग़रीब सवर्णों को १०% आरक्षण देने को तैयार हो गयी।
किन्तु ये पूर्ण विराम नहीं है। सवर्ण समाज और ओबीसी समाज के अधिकतर लोगो ने सम्पूर्ण आरक्षण प्रणाली को ख़त्म करने की ठान ली है। इनका मानना है की आरक्षण जातिगत रूप से न होकर आर्थिक रूप से लागू कर देना चाहिए।
गौरतलब है, समाज के कई पिछड़े वर्ग के गरीब लोगो को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता और अमीर व सक्षम पिछड़े वर्ग के लोग इसका भरपूर प्रयोग करते है, जिन्हे दरअसल आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं हैं।
आरक्षण के विरोध में मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व दिल्ली से कई सामाजिक कार्यकर्ता व आरक्षण विरोधी पार्टिया समय समय पर भारत बंद का ऐलान करती आयी है। पिछले वर्ष 6 सितम्बर को भी सवर्ण समाज ने भारत बंद का ऐलान किया व कई राज्यों में इसका सामाजिक असर देखा गया। मध्यप्रदेश के कई शहरों में स्थिति भी ख़राब होती नजर आयी व सांप्रदायिक तनाव से सरकार को धारा144 भी लगानी पड़ी। इस वर्ष फिर से मामला गर्म होता दिख रहा है, हाल ही में सवर्ण नेता दीपक सारस्वत ने फिर से एक बार भारत बंद करने का आवाहन व आरक्षण के विरुद्ध संघर्ष को समर्थन दिया है। उनका कहना है – एक परिवार जिसकी एक पीढ़ी को आरक्षण का लाभ एक बार मिला और वह गरीबी से बाहर निकल आयी, उसकी अगली पीढ़ियों को भी इसका लाभ मिलता गया। जबकि होना यह चाहिए था कि जो परिवार एक बार इसका लाभ लेकर आगे बढ़ गया, उसे दोबारा इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए था.
इस आरक्षण के विरोध और बंद को कई छत्रीय, ब्राह्मण सभाओं और अनेको पार्टियों ने समर्थन दिया है। सवर्ण नेता तर्क दे रहे हैं कि आरक्षण से मूलतः कमजोर वर्गों को फायदा मिलना चाहिए चाहे वह किसी भी जाती के हों. इस तरह की व्यवस्था लागू करने के प्रयास पहले भी हुए हैं लेकिन वह सफल नहीं हुए। अगर आरक्षण को सही मायने में लागू करना ही है तो इसका एक तरीका तो यह हो सकता है कि एक बार जिस परिवार को इसका लाभ मिल गया, उसकी अगली पीढ़ियों को इससे बाहर कर दिया जाए. इससे बहुत से परिवार आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बेहतर हो जाएंगे जो आज नहीं हो पाए हैं. दूसरी बात कुछ प्रतिशत उन गरीबों के लिए भी रखा जाए जो पिछड़ी नहीं बल्कि तथाकथित ऊंची जाति से आते हैं. आर्थिक आधार पर बराबरी करने के लिए इससे बेहतर आरक्षण का कोई विकल्प नहीं सूझता.
खैर वैसे तो चुनाव आते ही ये मुद्दा तूल पकड़ने लगता है, हर पार्टी आरक्षण के नाम पर दलित और मुस्लिम वोटों को आकर्षित करती रहती है। देखना ये है की क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण लेने को दलित व पिछड़ा समाज तैयार होता है या फिर से सवर्ण समाज के इस फैसले के खिलाफ खड़ा होता है.