हाड़ा राजपूतों के अप्रतिम शौर्य और वीरता का प्रतीक है बूंदी का किला ।पर्वतों से चारों ओर से सुरक्षित व नैसर्गिक सौंदर्य से ओतप्रोत तारागढ़ दुर्ग का निर्माण बूंदी के राव देवा के वंशज राव बरसिंह ने 1354 ईस्वी में करवाया।
यह दुर्ग बूंदी के 1426 फीट ऊंचे पर्वत शिखर पर स्थित है। मेवाड़ के राजकुमार पृथ्वीराज ने अपनी पत्नी तारा के कहने पर इस किले का दोबारा निर्माण किया था इसीलिए यह तारागढ़ के नाम से प्रसिद्ध है। बूंदी के किले की बाहरी दीवार का निर्माण 18वीं सदी में फौजदार दलील ने करवाया था। फौजदार दलिल कुछ समय तक जयपुर रियासत के सामंत के रूप में यहां का शासक भी रहा था।
तारागढ़ फोर्ट कैसे पहुंचे
तारागढ़ फोर्ट जयपुर और कोटा के बीच नेशनल हाईवे 52 पर स्थित है। तारागढ़ दुर्ग तक पहुंचने के लिए कोटा से बस का सफर सबसे उत्तम होता है। कोटा से बूंदी की दूरी मात्र 30 किलोमीटर है जो कि महज1 घंटे का सफर है।
तारागढ़ दुर्ग वीरता और बलिदान की अनेक रोमांचक घटनाओं का साक्षी रहा है इस दुर्ग के भीतर सोलह वीं शताब्दी में एक ऊंची विशाल लाट (मीनार) का निर्माण शक्तिशाली तोप ‘गर्भ गुंजन’ को रखने हेतु करवाया गया था। कर्नल टॉड ने बूंदी के राज महलों को राजस्थान के सभी रजवाड़ों के राज प्रसादओं में सर्वश्रेष्ठ बताया है।
अन्य दर्शनीय स्थल
इस दुर्ग में छात्र महल, अनिरुद्ध महल, रतन महल, बादल महल,फूल महल आदि स्थापत्य कला के उत्कृष्ट एवं अत्यंत सुंदर उदाहरण है। अन्य महलों में जीवन रक्खा महल, दीवान-ए-आम सिलह खाना, नौबत खाना, दूधा महल आदि दर्शनीय है इन महलों में अत्यंत बारीक एवं सुंदर भित्ति चित्र है। महाराव उम्मेद सिंह के समय निर्मित चित्रशाला (रंग विलास) बूंदी चित्रकला शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है।महाराव ने बूंदी शहर के चारों ओर प्राचीर का निर्माण करवाया था
बूंदी का किला ,प्रमुख प्रवेश द्वार
हाथीपोल, गणेश पोल एवं हजारी पोल तारागढ़ दुर्ग के मुख्य प्रवेश द्वार है।
राणा कुंभा का अनोखा बलिदान
मेवाड़ के राणा लाखा इस दुर्ग को जीत नहीं सके तो उन्होंने इसे हासिल करने तक अन्न जल ग्रहण न करने की कसम खाई थी अतः उनकी बात रखने के लिए मिट्टी का तारागढ़ दुर्ग बनाकर उसे ध्वस्त करके उनकी कसम पूरी की गई। परंतु इस मिट्टी के दुर्ग की रक्षा की खातिर भी आन बान के धनी बूंदी के हाड़ा सरदार कुंभा ने मिट्टी के दुर्ग की रक्षा के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी।
तारागढ़ पर कभी मेवाड़ शासकों का अधिकार रहा तो कभी मालवा के सुल्तानों का। मालवा के सुल्तान होशंग शाह ने बूंदी शासक राव बैरीसाल के शासन काल में बूंदी पर आक्रमण किया तथा दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। उसके बाद महमूद खिलजी व महाराणा कुंभा ने भी बूंदी दुर्ग पर अधिकार किया था। अकबर के शासन काल में बूंदी शासक राव सुरजन हाडा ने अपने अधीन रणथंबोर दुर्ग को अकबर को सौंप कर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।
शाहजहां ने जब अपने पिता जहांगीर के विरुद्ध विद्रोह किया था तो उसे बूंदी शासक रतन सिंह हाडा ने शरण दी थी। इस दुर्ग पर अधिकार को लेकर हुए विवाद में बूंदी के शासक बुद्ध सिंह की कछवाहि रानी ने अपनी सहायता के लिए मराठों को राजस्थान में पहली बार आमंत्रित किया। जिसका खामियाजा यहां की कई रियासतों को कई वर्षों तक भुगतना पड़ा। बूंदी दुर्ग की प्राचीर का निर्माण राव बुद्ध सिंह ने ही 1700ई. में करवाया था।