मेवाड़ के महाराणा ने कुंभलगढ़ किला (Kumbhalgarh Fort) का निर्माण चित्तौड़गढ़ और उदयपुर पर शत्रुओं के बार – बार आक्रमण होने और उनके असुरक्षित अनुभव करने पर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के पश्चिमी छोर पर घने जंगलों, पर्वत श्रेणियों, दुर्गम मार्गो और मरुस्थली के और पूर्वी क्षेत्र से घिरे ऊंचे पर्वत पर कुंभलगढ़ के किले का निर्माण करवाया।
कुंभलगढ़ किले का निर्माण राणा कुंभा ने केलवाड़ा के पश्चिम में समुद्र तल से 3568 फीट ऊंची पहाड़ी पर करवाया। मेवाड़ में ‘जरगा’ पहाड़ी चोटी को छोड़कर दूसरी इतनी ऊंची कोई चोटी नहीं है।इसीलिए इस चोटी पर बने कुंभलगढ़ के किले से दूर तक मारवाड़ और गुजरात का प्रदेश दिखाई देता है जो इस किले को शत्रु से अद्भुत सुरक्षा प्रदान करता है। महाराणा कुंभा और महाराणा प्रताप मेवाड़ के शासकों में वीर पराक्रमी युद्ध कौशल में निपुण और साहसी प्रवृत्ति के थे, इसलिए मेवाड़ की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए और गुजरात तथा मारवाड़ की सेनाओं को घुसने से पूर्व ही शिकस्त देने के उद्देश्य से इस किले का निर्माण कराया गया। इस दुख की आधारशिला 1448 में रखी गई वह दुर्ग का निर्माण 1458 ईस्वी में पूरा हुआ। प्रकृति में विभिन्न पर्वत श्रृंखलाओं के माध्यम से कुंभलगढ़ को एक नैसर्गिक सुरक्षा कवच प्रदान किया है इस किले की ऊंचाई के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि ‘यह इतनी बुलंदी पर बना हुआ है की नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती हैं ‘। कुंभलगढ़ का दुर्ग जहां एक और सैनिक अभियानों के संचालन की दृष्टि से उपयोगी था, वही विपत्ति के समय शरणा स्थली के रूप में भी उपयुक्त था।
कुंभलगढ़ किला (Kumbhalgarh Fort)
इस किले के मार्ग में पहला दरवाजा आरेट पोल, दूसरा दरवाजा हनुमान पोल, तीसरा दरवाजा रामपोल है। यहीं से किले का परकोटा चारों ओर फैल जाता है।परकोटे में गोलाकार बुर्ज, गोली दागने के छिद्र, शत्रु सेना पर नजर रखने के लिए दृश्य स्थल (Observation post) आदि है। रामपोल से आगे एक भव्य भवन दिखाई देता है जिसे ‘वेदी’ कहते हैं। इस वेदी के कलात्मक खम्भों पर टिकी मूर्तियों से जड़ी छतें, दीवारों की खुदाई बरबस ही देखने वाले का मन मोह लेती हैं। इसे महाराणा प्रताप ने यज्ञ करवाने हेतु बनवाया था। इसके आगे अति घुमावदार, दुर्गम मार्ग है जिसे ‘कटारगढ़’ कहते हैं। इसके आगे भैरवी पोल है। वहां से ताराबुर्ज दिखाई देती है।
दर्शनीय स्थल
इस किले में महाराणा कुंभा के महल, महाराणा प्रताप के महल, झाली बावड़ी मामादेव का कुंड, कुंभा स्वामी का मंदिर, नीलकंठ महादेव का मंदिर, बादल महल, मामादेव का मंदिर आदि दर्शनीय स्थल है। कुंभलगढ़ दुर्ग के पूर्व में हाथिया गुढ़ा की नाल है तथा किले की तलहटी में महाराणा रायमल के बड़े पुत्र कुंवर पृथ्वीराज की छतरी बनी हुई है जो ‘उड़णा राजकुमार’ के नाम से प्रसिद्ध था।
कुंभलगढ़ दुर्ग से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएं
राणा सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ राजपरिवार की स्वामी भक्त पन्नाधाय ने अपने पुत्र की बलि देकर उदय सिंह को बनवीर से बचाया वह कुंभलगढ़ के किलेदार आशा देवपुरा के पास लालन-पालन किया।
कुंभलगढ़ के दुर्ग में ही उदय सिंह का मेवाड़ के महाराणा के रूप में राज्याभिषेक हुआ।
1537 ईसवी में कुंभलगढ़ दुर्ग से ही प्रयाण कर उदय सिंह ने बनवीर को परास्त कर चित्तौड़ पर वापस अपना अधिकार स्थापित किया।
कुंभलगढ़ दुर्ग में ही वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म हुआ।
गोगुंदा में महाराणा प्रताप का राज्य तिलक होने के बाद महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ से ही मेवाड़ का शासन प्रारंभ किया था।
कुंभलगढ़ दुर्ग से ही महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी का युद्ध की तैयारी की थी और हल्दीघाटी युद्ध के बाद कुंभलगढ़ दुर्ग से ही अपनी सैन्य शक्ति को पुनः संगठित कर मुगलों से युद्ध हेतु तैयारी की।
1578 ईस्वी में सम्राट अकबर ने महाराणा प्रताप को विजिट करने हेतु शाहबाज खाँ के नेतृत्व में विशाल सेना के साथ कुंभलगढ़ पर आक्रमण करवाया। युद्ध में महाराणा प्रताप के विश्वस्त सेनानायक राव भाण सोनगरा के नेतृत्व में राजपूतों ने लड़ते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया। परंतु कुछ समय बाद ही महाराणा प्रताप ने पुणे इस दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया।
कुंभलगढ़ दुर्ग में पीलखाना (हाथियों का बाड़ा) भी बना हुआ है। कुंभलगढ़ का किला हथियागुड़ा की नाल के ठीक ऊपर स्थित है। कुंभलगढ़ का किला 36 किलोमीटर लंबे सुरक्षा परकोटे से सुरक्षित घिरा हुआ है जो अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड में दर्ज है। इसकी सुरक्षा दीवार 7 मीटर चौड़ी है, इस पर एक साथ चार घुड़सवार चल सकते हैं । यह चीन की महान दीवार के बाद दुनिया की सबसे बड़ी दीवार है। इसीलिए इसे भारत की महान दीवार कहते हैं।
कटारगढ़
कुंभलगढ़ किले के भीतर यह किला दुर्ग के सबसे ऊंचे भाग पर स्थित है यह महाराणा कुंभा का निवास स्थान था। महल का सबसे ऊपरी कक्ष ‘संगीत कक्ष’कहलाता है, जहां पर राणा कुंभा ने ‘चंडीशतक’ की टीका लिखी थी। ऊदा (कुंभा के पुत्र) द्वारा महाराणा कुंभा की हत्या कटारगढ़ मैं की गई थी।
कुंभलगढ़ के किला ‘मेवाड़ की आंख’ के नाम से भी जाना जाता है। इस किले में रसद सामग्री जुटाने की इतनी व्यवस्था थी कि 1 वर्ष तक 30000 व्यक्तियों/सैनिकों को पर्याप्त रसद मिल सकती। इसी कारण मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी और गुजरात के बादशाह कुतुबुद्दीन भी इस दुर्ग पर चढ़ाई कर हताश होकर चले गए।
इस किले में कई शिलालेख भी दर्शनीय है। कर्नल जेम्स टॉड ने इस दुर्ग की तुलना सुदृढ़ प्राचीन, बुर्जों एवं कंगूरो के कारण) ‘एट्रुस्कन’ से की है। कुंभलगढ़ के दुर्ग को मारवाड़ की छाती पर उठी तलवार, मेवाड़-मारवाड़ सीमा का पहरी, कमलमीर, माहोर, आदि उपनाम से भी जाना जाता है।
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