बीकानेर का जूनागढ़ किला ( Junagarh Fort, Bikaner ) रेत के समुद्र के बीच में उभरी हुई बलुई मिट्टी पत्थर की चट्टानी किंतु समतल भू-भाग पर निर्मित है। उत्तरी राजस्थान के सुदृढ़ भूमि दुर्ग में बीकानेर का जूनागढ़ उल्लेखनीय है। चारों तरफ से थार मरुस्थल से घिरा यह किला धान्वन दुर्ग की कोटि में आता है।
जूनागढ़ दुर्ग का निर्माण
लाल पत्थरों से बने इस भव्य जूनागढ़ किले ( Junagarh Fort) का निर्माण बीकानेर के प्रतापी शासक राय सिंह ने करवाया था। वस्तुतः बीकानेर के पुराने गढ़ की नियुक्ति बीकानेर के यशस्वी संस्थापक राव बीकाजी ने विक्रम संवत 1542 (1485 इसवी) मैं रखी थी। उनके द्वारा निर्मित प्राचीन किला नगर प्राचीन (शहरपनाह)के भीतर दक्षिण पश्चिम में एक ऊंची चट्टान पर विद्यमान है जो ‘बीकाजी की टेकरी’ कहलाती हैं।तत्पश्चात महाराजा रायसिंह ने बीकानेर के वर्तमान भव्य दुर्ग ‘जूनागढ़’ का निर्माण करवाया।
‘दयालदास री ख्यात’ के अनुसार नए दुर्ग की नीवं मौजूदा पुराने गढ़ के स्थान पर ही भरी गई थी। इसलिए इसका नाम ‘जूनागढ़’ (पुराने किसी गढ़ के स्थान पर निर्मित गढ़) पड़ा। बीकानेर के किले के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण दुर्ग निर्माता महाराजा रायसिंह की प्रशस्ति के अनुसार इस किले की नींव विक्रम संवत 1645 की फागुन सुदी 12 को रखी गई।
किले का स्थापत्य
जूनागढ़ दुर्ग चतुष्कोण या चतुर्भुजकृति का है तथा लगभग 1078 गज की परिधि में फैला है। किले की प्राचीर बहुत सुदृढ़ है। इस किले में बराबर अंतराल पर 37 विशाल बुर्जे से बनी हुई है । जो लगभग 40 फीट ऊंची है। किले के चारों ओर खाई बनी हुई है जो लगभग 20-25 फीट गहरी तथा इतनी ही चौड़ी है। किले के भीतर जाने के लिए दो प्रमुख प्रवेश द्वार है। प्रवेश के पूर्वी द्वार का नाम कर्णपोल और पश्चिमी द्वार चांदपोल कहलाता है। इसके अलावा पांच आंतरिक द्वार है जो दौलतपोल, फतेहपोल, रतनपोल, सूरजपोल, ध्रुवपोल कहलाते हैं। सूरजपोल के दोनों तरफ चित्तौड़ में वीरगति पाने वाले दो इतिहास के प्रसिद्ध वीर जयमल मेड़तिया और पत्ता सिसोदिया की मूर्तियां स्थापित है जो उनके पराक्रम और बलिदान का स्मरण कराती हैं।जूनागढ़ बाहर से देखने पर जितना सुदृढ़ है भीतर से उतना ही भव्य और सुंदर है।किले के भीतर विशाल चौक के एक तरफ आलीशान महल बने हुए हैं जो अपने अद्भुत शिल्प और सौंदर्य के कारण दर्शनीय है।
जूनागढ़ के दर्शनीय स्थल
राय सिंह का चौबारा, फूल महल ,चंद्र महल, गज मंदिर, अनूप महल, रतन निवास, रंग महल, कर्ण महल, दलेल निवास, छत्र महल, लाल निवास, सरदार निवास, गंगा निवास, चीनी बुर्ज, सुनहरी बुर्ज, विक्रम विलास, सूरत विलास, मोती महल, कुंवरपदा और जालीदार बारहदरियाँ आदि प्रमुख है।
दुर्ग की अन्य इमारतों में उस्ट्र शाला अश्व शाला घंटाघर आदि हैं। दुर्ग के अंदर दो कुएं रामरस और नीररस है। महलों की सजावट एवं अलंकरण में मुगल शैली की प्रधानता देखी जा सकती हैं ।अनूपमहल मैं यहां के शासकों का राजतिलक होता था। इसकी दीवारों और छत पर कलाकारों द्वारा सोने की पच्चीकारी का सुंदर कार्य किया हुआ है। इस महल इस महल में रखा ‘हिंण्डोला’ कला का उत्कृष्ट नमूना है। जूनागढ़ की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इस के प्रांगण में दुर्लभ प्राचीर वस्तुओं शास्त्रास्त्रों, देव प्रतिमाओं, विविध प्रकार के पात्रों तथा फारसी व संस्कृत में लिखे गए हस्तलिखित ग्रंथों का समृद्ध संग्रहालय है।
बीकानेर के राजाओं द्वारा मुगलों की अधीनता स्वीकार करने उनसे राजनीतिक मित्रता और निकट संबंध की वजह से बीकानेर के इस किले पर कोई बड़े आक्रमण नहीं हुए। बीकानेर को जोधपुर और नागौर के राठौड़ों के आक्रमणों को झेलना पड़ा। 1733 ईस्वी में नागौर के अधिपति बखतसिंह ने अपने भाई जोधपुर के महाराजा अभय सिंह के साथ एक विशाल सेना लेकर बीकानेर पर चढ़ाई की और जूनागढ़ को चारों ओर से घेर लिया लेकिन बीकानेर के तत्कालीन महाराजा सुजान सिंह और उनके पुत्र जोरावर सिंह ने किले की सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था की जिससे या आक्रमण विफल हो गया।
1740 ईस्वी में जोधपुर के महाराजा अभय सिंह ने बीकानेर पर चढ़ाई की इस बार बीकानेर के कुछ विद्रोही सरदारों-भादरा के ठाकुर लाल सिंह, चुरू के संग्राम सिंह,और महाजन के ठाकुर भीम सिंह ने जोधपुर का साथ दिया जिससे स्थिति और भी विकट हो गई। इस शक्तिशाली सेना ने बीकानेर नगर में बहुत विध्वंस किया जूनागढ़ पर तोपों के गोले बरसाए। संकट की इस घड़ी में बीकानेर के महाराजा जोरावर सिंह ने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह से सहायता करने का अनुरोध किया। इस पर महाराजा सवाई जयसिंह ने जोधपुर के महाराजा अभयसिंह को जो कि उनके दामाद भी थे चेतावनी देते हुए संदेश भेजा कि वह तत्काल बीकानेर का घेरा उठा ले।
अभय सिंह द्वारा इसमें विलंब करने पर सवाई जयसिंह ने तीन लाख की विशाल सेना के साथ जोधपुर पर चढ़ाई कर दी अब अभय सिंह को विवश होकर बीकानेर का घेरा उठाना पड़ा इस प्रकार जयपुर की मदद से बीकानेर पर आया एक बड़ा संकट टल गया। बीकानेर के महाराजा जोरावर सिंह ने इस संकट के समय एक सफेद चील को देखकर अपनी कुलदेवी करणी जी को बड़े ही मार्मिक शब्दों में याद किया था-डाढाली डोकर थई, का तूँ गई विदेस।खून बिना क्यों खोसजे, निज बीका रो देस।।
यहां के नरेशों में सबसे अधिक प्रसिद्ध ‘गंगा सिंह’ जी हुए जो ‘गंग नहर’ लाने वाले सर्वत्र पूज्य महाराजा माने जाते हैं उन्होंने भी इस किले में कुछ अंश के निर्माण में योगदान दिया था।
बीकानेर का यह भव्य दुर्ग इतिहास कला और संस्कृति की बहुमूल्य धरोहर को संजोए हुए हैं जिसे देखने के लिए देशी विदेशी पर्यटक यहां आते हैं।
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